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Sunday 5 June 2016

बिगड़ रहा है संतुलन

शुभांशू जायसवाल
''पर्यावरण'' जीवन का अभिन्न अंग। वर्तमान समय में मानव अपनी भौतिकीकरण विकास में मसगुल होने के कारण अपने अटूट हिस्से को भूल गया है। आदि काल से ही मानव एवं प्रकृति का अटूट संबंध रहा है। विकास के आरम्भिक चरण में मानव प्रकृति के साथ रहकर विकास के बारे सोचता था परन्तु मानव की बढ़ती भौतिकवादी महत्वकांक्षाओं ने पर्यावरण में इतना परिवर्तन ला दिया है जिससे पर्यावरण की प्रतिक्रिया उसे विनाशकारी विकास में परिवर्तित कर सकती है।
सन् 1730 में राजस्थान के एक गांव खेजरली (जोधपुर) बिश्नोई प्रजाति के पुरुष, महिलाएं एवं बच्चों ने पेड़ों की रक्षा करते हुए राजा के सिपाहिओं के हाथों अपनी जान गवा दी थी। पर्यावरण की रक्षा के लिए ये वाक्या सम्पूर्ण विश्व के लिए एक प्रेरणास्रोत बनी और 19वीं सदी में इसी सोच ने भारत में 'वन सत्याग्रह' और 'चिपको आंदोलन' के रूप में प्रकृति की रक्षा में जन आंदोलनों को मजबूती दी। हमारी सभ्यता प्राचीन काल से ही प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर चलने वाले समाजों में से एक है, जिसने प्रकृति की रक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में रखने से भी तनिक नहीं सोचा। शायद उनको ये ज्ञात था कि प्रकृति के संतुलन में ही मानव जाती की भलाई और विकास है। इस बात से हम तनिक भी इनकार नहीं कर सकते कि पश्चिमीकरण ने हमारी जीवन शैली, हमारी संस्कृति के साथ-साथ पर्यावरण को भी प्रभावित किया। इसके साथ ही आज हम ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं से भी ग्रसित हैं।
वर्तमान समय में हम अपने संसाधनों की पूर्ति के लिए प्रकृति की बलि चढ़ा रहे हैं जिससे हमारी जैव विविधता, पेयजल, स्वच्छ हवा व उपजाऊ जमीन खतरे में हैं। स्वयं को विकसित व विकासशील कहने वाले उन सभी देशों के लिए एक सवाल खड़ा होता है। जो प्रकृति से खिलवाड़ और उसके विनाश को ही विकास का पर्याय मानते हैं और बड़े-बड़े कल-करखाने लगाते हैं और शहरीकरण को बढ़ावा देते हुए गांव को पिछड़ेपन व जहालत की निशानी मानते हैं। हम अपने खोखले विकास के कारण जंगलों को खत्म करना शुरू कर दिया है जिससे हमारा पर्यावरण असंतुलित तो होगा ही बल्कि इसके साथ ही साथ सैकड़ों वर्षों जंगलों में रह रहे आदिवासियों का घर भी उजाड़ना शुरू कर दिया है। भारत में पर्यावरण संतुलन के लिए कुल 31 प्रतिशत भाग पर वन होने चाहिए लेकिन इस सतय के 21 प्रतिशत ही बचा है। जिस कृषि प्रधान देश में नदिओं के पानी द्वारा सिंचाई एवं उसके बाढ़ में लाए गए मिट्टी से शुद्ध खेती होती थी आज वह पानी उद्योगों और शहरों के विकास के लिए मोड़ा जा रहा है।
अगर जलस्तर की बात करें तो भू-गर्भ जलस्तर इतना गिर गया है कि नदियां सुख रहीं हैं और फैक्ट्रियों से निकले विषाक्त धुएं व कूड़ा-कचरा नदियों में डालने से नदियां प्रदूषित हो चुकी हैं, जिससे स्वच्छ जल का संकट उत्पन्न हो गया है। पेड़-पौधे भी इसके शिकार हो गये हैं। इससे भी पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है और समाज बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। देश की राजधानी की दिल्ली की बात करें तो वह देश का सर्वाधिक विकसित शहर माना जाता है। यहां पर सभी प्रकार सुख सुविधा उपलब्ध हैं लेकिन पर्यावरण की बात करें तो दिल्ली से गरीब शायद ही कोई शहर होगा। गौरैया और कोयल को देखना दिल्लीवासियों के लिए स्वप्न सा हो गया है। देश की प्रमुख नदियों में से एक यमुना नदी भी प्रदूषण की भेंट चढ़ गया है। यह सिर्फ दिल्ली की बात नहीं बल्कि देश के लगभग सभी शहरों एवं राज्यों की है। ये औद्योगिकीकरण से विकसित तो हो रहे हैं लेकिन पर्यावरण के मामले में एकदम गरीब हैं।
विश्व में प्लास्टिक एवं पॉलिथीन का इस्तेमाल होने से पर्यावरण संकट में था लेकिन अब साइबर क्रांति के कारण 'ई-वेस्ट' यानी इलेक्ट्रॉनिक कचरा एवं सांस्कृतिक प्रदूषण नई समस्याओं के रूप में सामने है। 'ई वेस्ट' से फास्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसी खतरनाक धातुएं निकलती हैं जिससे न्यूरोसिस (मनोरोग) एवं कैंसर के रोगियों की संख्या में तीव्रतर वृद्धि हो रही है। इसके साथ ओजोन-क्षरण, अम्ल वर्षा, त्वचा कैंसर, शारीरिक एवं मानसिक विकलांगता एवं आंखों के कॉर्निया एवं लेंस के नुकसान का कारण बनता है। भारत की आर्थिक राजधानी कहा जाने वाला राज्य महाराष्ट्र ई-वेस्ट मामले में पहले पायदान पर है।

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