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Sunday 29 May 2016

हिन्दी मीडिया और वर्तमान चुनौतियां

डा. सुनील कुमार असिस्टेंट प्रोफेसर
जनसंचार विभाग वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविदयालय जौनपुर

हिन्दी पत्रकारिता ने जैसे-जैसे अपने पांव पंसारने शुरू किये। ठीक उसी के अनुपात में चुनौतियां भी अपने मुंह के आकार का विस्तार करती गईं। इसे आप संसार का नियम माने या सामाजिक रीति। यह तकरीबन हर क्षेत्र में लागू होता है। समूची भारतीय पत्रकारिता और मीडिया की वर्तमान चुनौतियों के संदर्भ में बात करने के पहले इसे 3 हिस्सों में समझने की जरूरत है। पहली अंग्रेजी पत्रकारिता, दूसरी हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बड़े अखबारों की पत्रकारिता और तीसरी क्षेत्रीय अखबारों की पत्रकारिता। पहली, अंग्रेजी की पत्रकारिता तो बाजारवाद की हवा को आंशी में बदलने में लगी है और कमोवेश इसने सारे नैतिक मूल्यों और सामाजिक सरोकारों को शीर्षासन करा दिया है। दूसरी श्रेणी में आने वाले हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बहुसंस्करणीय अखबार हैं। वे भी बाजारवादी हो हल्ले में अंग्रेजी पत्रकारिता के ही अनुगामी बने हैं। उनकी स्वयं की कोई पहचान नहीं है और वे इस संघर्ष में कहीं ‘लोक’ या जनसरोकारों से जुड़े नहीं दिखते। तीसरी श्रेणी में आने वाले क्षेत्रीय अखबार हैं जो अपनी दयनीयता के नाते न खास अपील रखते हैं और न ही उनमें कोई आंदोलनकारी या परिवर्तनकारी भूमिका निभाने की इच्छा शेष है। यानि मुख्य धारा की पत्रकारिता ने चाहे-अनचाहे बाजार की ताकतों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है।
भारत में हिन्दी पत्रकारिता के जन्म की गाथा की बात करें तो यह आजादी के आंदोलन की कोख से शुरू हुई। आजादी के संघर्ष के दौर में पत्रकार स्वतंत्रता सेनानी की भूमिका में थे, तब निःसंदेह वह हमारे हीरो थे। हमारे हीरोज का संघर्ष रंग लाया और अंग्रेज भाग खड़े हुए। 1947 के बाद देश का परिदृश्य बदला। इसी के साथ पत्रकारिता ने भी अपना चोला उतारा। मिशन वाली पत्रकारिता प्रोफेशन में बदली। वैश्वीकरण की हवा ने इसे ऐसा झकझोरा की यह व्यवसाय का रूप ले ली। यानी पत्रकारिता या मीडिया इण्डस्ट्री मालिकों के लिए नफा-नुकसान का व्यवसाय बन गया। साथ ही इसके पत्रकारों के लिए पत्रकारिता ग्लैमराइज कैरियर का विकल्प बन गई। इसके बाद शुरू हुआ इस पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर। यह पेड न्यूज, संस्थागत भ्रष्ट्राचार, तथाकथित स्टिंग आपरेशन और अनैतिक आचरण के आरोपों से चौतरफा घिरी है। पत्रकार ही नहीं मीडिया संस्थान भी संदेह की दृष्टि से देखे जा रहे हैं। सन् 2014 में पहली बार एक मीडिया संस्थान दूसरे पर कीचड़ उछालते नजर आ रहे हैं। यह मीडिया जगत के लिए बहुत ही दुखद पहलू है।
कहने का आशय यह है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में पत्रकारों की इज्जत पहले से काफी कम हुई है। देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बनने के बाद मीडिया जगत में जो खेल हो रहा है। यह बहुत दुखद है। इसके लिए मोदी सरकार का मैं कोई दोष नहीं मानता। हो सकता है कि नरेंद्र मोदी ऐसा नहीं चाहते हो, मगर मीडिया संस्थान के पत्रकार उनका चारण करने से बाज नहीं आ रहे हैं। यह किसी भी लोकतांत्रित देश और वहां की जनता के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। याद रहे कि गणेश शंकर विद्यार्थी ने कहा था कि पत्रकार को हमेशा अपने आप को विपक्ष में रखकर सवाल करने चाहिए। इससे सरकार जनहित के काम पर जोर देती है और अपनी कमियों को सुधारती है। अगर पत्रकार या मीडिया समूह जिस दिन सरकार को भोंपू बन गया, उसी दिन उसके संस्थान से लोगों का विश्वास उठ जाएगा। हां यह बात दीगर है कि वह अच्छी खासी पूंजी और सरकारी पुरस्कार का जखीरा अपने संस्थान के लिए इकट्ठा कर लेगा। आज इंडिया टीवी, जी न्यूज, इंडिया न्यूज समेत दो दर्जन से अधिक न्यूज चैनल ऐसे है जो सरकार का गुणगान अपने ढंग से करके अपना और अपने मालिकों का प्रत्यत्क्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लाभ पहुंचाने का काम कर रहे हैं।
इन सबके बावजूद कई इमानदार पत्रकारों की भी फेहरिस्त है जो प्रोफेशन के जमाने में भी मिशन की पत्रकारिता कर रहे हैं। उनके अपने सिद्धान्त हैं, वसूल हैं और प्राथमिकताएं हैं। उन्होंने अपने रास्ते खुद बनाएं हैं। नया आसमान रचा है। वे उस दीपक की तरह मैदान में हैं जो डूबते सूरज को भरोसा दिलाते हैं कि नई सुबह आने से पहले तक घुप्प अंधेरे से वे जमकर मुकाबला करेंगे। नए उजास की उम्मीद समाज को देते रहेंगे। मीडिया के ऐसे सरस्वती पुत्रों की कलम का कोई मीडिया मुगल बेजा इस्तेमाल नहीं कर सकता, उससे समाज को भी भरोसा है।
आज के दौर में पत्रकारिता की प्रासंगिकता और विश्वसनीयता पर ढेरों सवाल हों, ऐसे समय में राम बहादुर राय, रवीश कुमार, पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसे कई दर्जन पत्रकारों की उपस्थिति हमें आश्वस्त करती है कि सारा कुछ खत्म नहीं हुआ है। सही मायने में उनकी मौजूदगी हिन्दी पत्रकारिता की उस परम्परा की याद दिलाती है जो बाबू राव विष्णु पराड़कर से होती हुई राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जोशी तक जाती है। मीडिया के बदलते परिवेश की अगर चर्चा की जाए तो आज भी अपने आपमें काफी हद तक अगर किसी ने बदलाव लाया है तो वह हैं, हिन्दुस्तान के सम्पादक शशिशेखर, प्रभात खबर के हरिबंश, नई दुनिया के आलोक मेहता और एनडीटीवी के रवीश कुमार, आज तक के पुण्य प्रसून वाजपेयी, नवभारत टाइम्स के पूर्व सम्पादक विश्वनाथ सचदेव, नई दुनिया के पूर्व सम्पादक मदन मोहन जोशी, इंडिया टूडे के कार्यकारी संपादक और कापी मास्टर जगदीश उपासने, सुरेन्द्र किशोर जैसे कई और नाम हैं। इन्होंने समय के साथ अपने व्यक्तित्व और प्रोफेशन में काफी बदलाव लाया है।
आज मीडिया को जो ताकत मिली है वह मध्यम वर्ग से मिली है। इस वर्ग को हथियार बनाकर बम-बम हो रहा है। उछाले भर रहा है। दुनिया की सर्वाधिक कुपोषितों, बीमारों, बेरोजगारों, निरक्षरों में से एक इस देश भारत की इकोनामी जिस बूम पर है। मीडिया उस बूम से भी ज्यादा उछाल मार रहा है। 2006 में भारत के मीडिया ने 4.2 अरब डालर का लाभ दर्शाया है जो 2015 में 16 अरब डालर तक पहुंच गया है। आज लगभग 10.0 करोड़ घरों तक टीवी सेट की पहुंच है। वह अगले सात वर्षों में लगभग 30 करोड़ घरों में हो जाने का अनुमान है। डीटीएच सिस्टम अभी सिर्फ 30 लाख घरों में है। अगले दशक में लगभग 6 करोड़ घर में पहुंचाने का लक्ष्य है। सरकारी प्रोत्साहन, विदेशी निवेश, कारपोरेट की व्यापारिक संस्कृति, वैश्विक गठजोड़, अधिग्रहण और इन सबको सुगम बनाने के लिए हो रही तकनीकी क्रांति ने भारत के मीडिया को जो रफ्तार और रवानगी दी है। उसके आगे बहुते सारे अग्रगामी सेक्टर पानी भरते नजर आते हैं।
मीडिया की यह छलांग भरती प्रगति टीवी, रेडियो, अखबार, सिनेमा, इण्टरनेट आदि हर क्षेत्र में है। इस प्रगति का संयुक्त सालाना औसत 19 प्रतिशत है। यानी इतनी जो देश की अर्थव्यवस्था की वृद्धि को भी अगले 4 सालों में पीछे छोड़ देगी लेकिन इस पसरते मीडिया के पांवों के नीचे की जमीन कैसी है। किन चीजों पर सवार होकर यह कुलाचे मार रहा है मीडिया इसके कमाऊ तत्व हैं। फैशन, सिनेमा, स्वास्थ्य, व्यापार, विज्ञान, सेल, प्रापर्टी, जीवनशैली, चालू राजनीति, बिकाऊ शर्म आदि। ये वे जिन्सें हैं जिनके रथ पर चढ़कर मीडिया दिनों दिन मोटा हो रहा है। अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि मीडिया की इन सारी जिन्सों या मालों की खपत उसी मध्यम वर्ग में होती है जो आज भारत के वैश्विक आधार का मूलाधार बना हुआ है। यही वर्ग मीडिया का नियंता भी है और उपभोक्ता भी। जैसे-जैसे इस वर्ग का विस्तार होगा वैसे-वैसे मीडिया का भी विस्तार होगा।
अब मीडिया की खुशनुमा प्रगति के पलट-पक्ष को भी देखिए। अगर टीवी, अखबार की पहुंच देश के लगभग 30 करोड़ लोगों तक हो चुकी है तो देश के लगभग 1 अरब लोग इस पहुंच से वंचित हैं। यानी की 1 अरब लोगों की इतनी औकात नहंीं है कि वह अखबार खरीदकर पढ़ सकें या घर में टीवी नाम का अजायब घर रख सकें। फैशन, सिनेमा, स्वास्थ्य, व्यापार, विज्ञान, सेल, प्रापर्टी, जीवनशैली, चालू राजनीति, बिकाऊ धर्म आदि इन लोगों की प्राथमिकता में बाध्यतन नहीं है, इसलिए मीडिया को इन तक पहुंचने की जरूरत भी नहीं हैं। यह भी बताने की जरूरत नहीं है कि मीडिया के बारे में जो आंकड़े तैयार किए जाते हैं। वे उसकी पैठ और उसके व्यवसाय को लेकर होते हैं। जिस तरह हमारी मौजूदा अर्थव्यवस्था के प्रणेता और प्रस्तोता भी इसके विस्तार और व्यवसाय के ही आंकड़े प्रस्तुत करते हैं, ऐसा इसलिए है कि दोनों एक-दूसरे के पूरक भी हैं और सहभागी भी। इनका रिश्ता चोली-दामन का है जिसमें एक की वृद्धि दूसरे की वृद्धि से समानुपातिक तौर पर जुड़ी हुई है।
भारतीय पत्रकारिता को समझने से पहले इसे 3 हिस्सों में समझने की जरूरत है। पहली अंग्रेजी पत्रकारिता, दूसरी हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के बड़े अखबारों की पत्रकारिता और तीसरी क्षेत्रीय अखबारों की पत्रकारिता। पहली, अंग्रेजी की पत्रकारिता तो बाजारवाद को आंधी में बदलने में सहायक ही बनी है और कमोवेश इसने सारे नैतिक मूल्यों और सामाजिक सरोकारों को शीर्षासन करा दिया है। दूसरी श्रेणी में आने वाले हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के बहुसंस्करणीय अखबार हैं। वे भी बाजारवादी हो हल्ले में अंग्रेजी पत्रकारिता के ही अनुगामी बने हुए हैं। उनकी स्वयं की पहचान नहीं है और वे इस संघर्ष में कहीं सामाजिक सरोकार से जुड़े नहीं दिखते। तीसरी श्रेणी में आने वाले क्षेत्रीय अखबार हैं जो अपनी दयनीय पूंजी के नाते न खास अपील रखते हैं न ही उनमें कोई आंदोलनकारी-परिवर्तनकारी भूमिका निभाने की इच्छा शेष है। यानि मुख्य धारा की पत्रकारिता ने चाहे-अनचाहे बाजार की ताकतों के आगे घूंटने टेक दिएं है।
अगर हम इसके व्यावसायिक पक्ष को देखें तो यह घाटे का सौदा नहीं है। अखबारों की छाप-छपाई, तकनीक-प्रौद्योगिकी के स्तर पर क्रांति दिखती है। वे ज्यादा कमाऊ उद्यम में तब्दील हो गए हैं। अपने कर्मचारियों को पहले से ज्यादा बेहतर वेतन, सुविधाएं दे पा रहे हैं। बात सिर्फ इतनी है कि उन सरोकारों का क्या होगा, उन सामाजिक जिम्मेदारियों का क्या होगा-जिन्हें निभाने और लोकमंगल की भावना से अनुप्राणित होकर काम करने के लिए हमने यह पथ चुना था? क्या अखबार को ‘प्रोडक्ट’ बनने और सम्पादक को ‘ब्राण्ड मैनेजर’ या ‘सीईओ’ बन जाने की अनुमति दे दी जाए? बाजार के आगे लाल कालीन बिछाने में लगी पत्रकारिता को ही सिर माथे बिठा लिया जाए? क्या यह पत्रकारिता भारत या इस जैसे विकासशील देशों की जरूरतों, आकांक्षाओं को तुष्ट कर पाएगी? यदि देश की सामाजिक आर्थिक जरूरतों, जनांदोलनों को स्वर देने के बजाए वह बाजार की भाषा बोलने लगे तो क्या किया जाए? यह चिंताएं आज हमें मथ रही हैं?

साभार— तेजस टूडे

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