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Sunday 12 June 2016

'मां गंगा' के दर्शनमात्र से मिल जाती है 'मुक्ति'

गंगे तव दर्शनात मुक्तिः! यानी गंगा मां के दर्शन से मुक्ति मिलती है। विष्णुपदी मां गंगा के धरती पर आने का पर्व है गंगा दशहरा। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा स्नान करने से व्यक्ति के दस प्रकार के पापों का नाश होता है। इन दस पापों में तीन पाप कायिक, चार पाप वाचिक और तीन पाप मानसिक होते हैं। इन सभी से व्यक्ति को मुक्ति मिलती है। इस दिन ऊं नमः शिवाय नारायण्यै दशहरायै गंगायै स्वाहा, मंत्रों द्वारा गंगा का पूजन करने से जीव को मृत्युलोक में बार-बार भटकना नहीं पड़ता। निष्कपट भाव से गंगा मां के दर्शन करने मात्र से जीव को कष्ट से मुक्ति मिल जाती है।
गंगा दशहरा यानी मां गंगा के धरती पर आने का दिन। यह दिन है कामनाओं को पूरा करने का। मां से वरदान पाने का। इस बार यह पर्व गुरुवार, 14 जून 2016 को है। गंगा दशहरा को बाबा रामेश्वर महादेव की प्राण प्रतिष्ठा का दिन भी माना जाता है। इस दिन गंगा स्नान, पूजन और दान के साथ बाबा विश्वनाथ, महाकाल, बाबा सोमनाथ, बाबा बैजनाथ धाम समेत 12 ज्योर्तिलिंगों का दर्शन मोक्षदायिनी माना  
गया है। इसीलिए इस दिन दानपुण्य और गंगा स्नान का विशेष महत्व है। यह पर्व सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाला है। वराह पुराण में कहा गया है कि इस नक्षत्र में सर्वश्रेष्ठ नदी स्वर्ग से अवतीर्ण हुई थी। वह दस पापों को नष्ट करती है। इस कारण उस तिथि को दशहरा कहते हैं। मान्यता है कि गंगा दशहरा के पावन पर्व पर मां गंगा में डुबकी लगाने से सभी पाप धुल जाते हैं। मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस दिन स्नान करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्ति पा जाता है। इस पर्व के लिए गंगा मंदिरों सहित अन्य देवालयों पर भी विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। इस दिन दान में सत्तू, मटका और हाथ का पंखा दान करने से दोगुना फल प्राप्त होता है।
जो मनुष्य इस दशहरा के दिन गंगा के पानी में खड़ा होकर दस बार गंगा मंत्रों का जाप करता है वह चाहे दरिद्र हो, चाहे असमर्थ हो, वह भी प्रयत्नपूर्वक गंगा की पूजा कर उस फल को पाता है। मनुस्मृति में 10 प्रकार के कायिक, वाचिक और मानसिक पाप कहे गए हैं। बिना आज्ञा दूसरे की वस्तु लेना, शास्त्र वर्जित हिंसा, परस्त्री गमन ये तीन प्रकार के कायिक (शारीरिक) पाप हैं। कटु बोलना, असत्य भाषण, परोक्ष में किसी की निंदा करना, निष्प्रयोजन बातें करना ये चार प्रकार के वाचिक पाप हैं। परद्रव्य को अन्याय से लेने का विचार करना, मन में किसी का अनिष्ट करने की इच्छा करना, असत्य हठ करना ये तीन प्रकार के मानसिक पाप हैं। इनकी महिमा का गुणगान करते हुए भगवान महादेव श्रीविष्णु से कहते हैं- हे हरे! ब्राह्मण की शापाग्नि से दग्ध होकर भारी दुर्गति में पड़े हुए जीवों को गंगा के सिवा दूसरा कौन स्वर्गलोक में पहुंचा सकता है, क्योंकि गंगा शुद्ध, विद्यास्वरूपा, इच्छा ज्ञान एवं क्रियारूप, दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों तापों को शमन करने वाली, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थो को देने वाली शक्ति स्वरूपा हैं। इसीलिए इन आनंदमयी, शुद्ध धर्मस्वरूपिणी, जगत्धात्री, ब्रह्मस्वरूपिणी अखिल विश्व की रक्षा करने वाली गंगा को मैं अपने मस्तक पर धारण करता हूं। कलियुग में काम, क्रोध, मद, लोभ, मत्सर, ईष्या आदि अनेकानेक विकारों का समूल नाश करने में गंगा के समान कोई और नहीं है। विधिहीन, धर्महीन, आचरणहीन मनुष्यों को भी गंगा का सान्निध्य मिल जाए तो वे मोह एवं अज्ञान के भव सागर से पार हो जाते हैं। 
पौराणिक मान्यताएं 

कहते हैं भगवान राम के रघुवंश में उनके एक पूर्वज हुए हैं महाराज सगर, जो चक्रवर्ती सम्राट थे। एक बार महाराज सगर ने अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया। उसके लिए अश्व को छोड़ा गया। इंद्र ने अश्वमेघ यज्ञ के उस घोड़े को ले जाकर कपिलमुनि के आश्रम में पाताल में बांध दिया। तपस्या में लीन होने के कारण कपिल मुनि को इस बात का पता नहीं चला। महाराज सगर के साठ हजार पुत्र थे, जो स्वभाव से उद्दंड एवं अहंकारी थे। मगर उनका पौत्र अंशुमान धार्मिक एवं देव-गुरु पूजक था। सागर के साठ हजार पुत्रों ने पूरी पृथ्वी पर अश्व को ढूंढा परंतु वह उन्हें नहीं मिला। उसे खोजते हुए वे पाताल में कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे, जहां उन्हें अश्व बंधा हुआ दिखाई दिया। यह देख सगर के पुत्र क्रोधित हो गए तथा शस्त्र उठाकर कपिल मुनि को मारने के लिए दौड़े। तपस्या में विघ्न उत्पन्न होने से जैसे ही कपिल मुनि ने अपनी आंखें खोलीं, उनके तेज से सगर के सभी साठ हजार पुत्र वहीं जलकर भस्म हो गए! इस बात का पता जब सगर के पौत्र अंशुमान को चला, तो उसने कपिल मुनि से प्रार्थना की, जिससे प्रसन्ना होकर कपिल मुनि ने अंशुमान से कहा, यह घोड़ा ले जाओ और अपने पितामह का यज्ञ संपन्न कराओ। महाराज सगर के ये साठ हजार पुत्र उद्दंड एवं अधार्मिक थे, अतः इनकी मुक्ति तभी हो सकती है, जब गंगाजल से इनकी राख का स्पर्श होगा। महाराज सगर के बाद अंशुमान ही राज्य के उत्तारधिकारी बने किंतु उन्हें अपने पूर्वजों की मुक्ति की चिंता सतत बनी रही। कुछ समय बाद गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिए अंशुमान राज्य का कार्यभार अपने पुत्र दिलीप को सौंपकर वन में तपस्या करने चले गए तथा तप करते हुए ही उन्होंने शरीर त्याग दिया। महाराज दिलीप ने भी पिता का अनुसरण करते हुए राज्यभार अपने पुत्र भगीरथ को सौंपकर तपस्या की, किंतु वे भी गंगा को पृथ्वी पर नहीं ला सके। सूर्यवंशी महाराजा भागीरथ ने अपने पितामहों का उद्धार करने का संकल्प लेकर हिमालय पर्वत पर घोर तपस्या की। इससे ब्रह्माजी प्रसंन होकर भगीरथ से कहा, हे भगीरथ! मैं गंगा को पृथ्वी पर भेज तो दूंगा, पर उनके वेग को कौन रोकेगा? इसलिए तुम्हें देवादिदेव महादेव की आराधना करनी चाहिए। इस पर भगीरथ ने एक पैर पर खड़े होकर भगवान शंकर की आराधना की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने गंगा को अपनी जटाओं में रोक लिया और उसमें से एक जटा को पृथ्वी की ओर छोड़ दिया। इस प्रकार गंगा का पृथ्वी पर अवतरण हुआ। अब आगे-आगे भगीरथ का रथ और पीछे-पीछे गंगाजी चल रही थीं। शिव की जटाओं से होकर ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की दशमी को हस्त नक्षत्र, बृषभ राशिगत सूर्य एवं कन्या राशिगत चन्द्र की यात्रा के मध्य गंगा का स्वर्ग से धरती पर पहाड़ों से उतर कर हरिद्वार ब्रह्मकुंङ में आईं थीं। मार्ग में जह्नुऋषि का आश्रम था। गंगा उनके कमंडल, दंड आदि को भी अपने साथ बहाकर ले जाने लगीं। यह देख ऋषि ने उन्हें पी लिया। राजा भगीरथ ने जब पीछे मुड़कर देखा, तो गंगा को नहीं पाकर उन्होंने जह्नुऋषि से प्रार्थना की तथा उनकी वंदना करने लगे। प्रसन्न होकर ऋषि ने अपनी पुत्री बनाकर गंगा को अपने दाहिने कान से निकाल दिया। इसीलिए गंगा को जाह्नवी के नाम से भी जाना जाता है। भगीरथ की तपस्या से अवतरित होने के कारण उन्हें भागीरथी भी कहा जाता है। जिसके बाद मां गंगा के पावन चरणों की धूली पाकर राजा सगर के 60 हजार पुत्रों का उद्धार हुआ था। तभी से इस दिन को गंगा दशहरा के रूप में मनाया जाने लगा। 
शिव की सर्वाधिक प्रिया थी गंगा 
ब्रह्मा के कमंडल में रहनेवाली गंगा भगवान शिव की जटाओं में गईं। भगवान शिव ने गंगा के कोप और वेग को शांत करने के लिए गंगा को बहुत समय तक जटाओं में ही छुपाए रखा। गंगा का कोप शांत हुआ। शिव के प्रति गंगा के मन में तो प्रेम पहले था ही, शिव को भी गंगा का संसर्ग सुखकर लगने लगा। ब्रह्म पुराण में कहा गया है- यस्मिन्काले सुरेशस्य उमापत्न्यभवत्प्रिया। तस्मन्नेवाभवद्गंगा प्रिया शंभोर्महामते ।।अर्थात जिस काल में सुरेश की उमा प्रिया पत्नी हुई थीं, उसी काल में शम्भु की प्रिया गंगा देवी हुई थीं। शिव की सर्वाधिक प्रिया गंगा हो गई थीं। सर्वाब्यो ध्यधिकप्रीतिर्ग....तामेव चिंतयानोसौ...। अर्थात सबसे अधिक प्रीतिवाली गंगा हो गई थी, भगवान शिव भी सदा उसी गंगा का चिंतन किया करते थे। चूंकि शिव ने गंगा को जटाओं में छुपा रखा था, इसलिए पार्वती को इसका आभास हुआ।
गंगा ने पति रूप में चाहा था शिव को 
गंगा शिवप्रिया के रूप में पुराणों में प्रसिद्ध है तथा पार्वती शिवपत्नी के रूप में। दोनों देवियों के बीच अत्यंत रोचक संबंध है। कहीं-कहीं तो भगवान शिव को उमागंगा पतीश्वर भी कहा गया है। गंगा राजा हिमवान की ज्येष्ठ पुत्री थीं। पार्वती भी गंगा की ही भांति हिमवान और मैना की पुत्री थीं। दोनों सहोदरा थीं। पार्वती को छोड़कर हिमवान की सारी कन्याएं नदी रूप में थीं। गंगा का वर्णन शरीर और नदी दोनों रूपों में है। गंगा और पार्वती के संबंधों को मुख्यतः तीन धरातलों-सती के मृत शरीर के विखंडित, अंतिम और सभी 51 वें पिंड की रक्षिका के रूप में, सहोदरा रूप में सपत्नी या शिवप्रिया रूप में। जब सती के शरीर के विभिन्न टुकड़े भिन्न-भिन्न स्थलों पर गिर कर शक्तिपीठ का रूप ग्रहण कर चुके थे, तो सती का अंतिम और 51 वां पिंड तारकासुर नष्ट कर रहा था। मार्कंडेय ऋषि ने राजा हिमवान और गंगा के सहयोग से तारकासुर से युद्ध कर उस पिंड की रक्षा की। उसी समय भगवान शिव का पदार्पण हुआ। शिव को देखते ही गंगा के मन में उनके प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया। गंगा ने शिव से पत्नी रूप में स्वीकारने की प्रार्थना की। शिव सती के वियोग में थे। उन्होंने कहा- मैं सती के अतिरिक्त किसी के बारे में सोच भी नहीं सकता। शिव ने गंगा को वरदान दिया कि जबतक ब्रह्मांड रहेगा, तबतक तुम पावन बनकर लोगों को पापमुक्त करती रहोगी। बाद में असुरों से स्वर्गलोक की रक्षा के लिए ब्रह्मा जी की याचना पर हिमवान ने त्रिभुवन के हित की इच्छा से गंगा को धर्मपूर्वक उनको दे दिया। गंगा ने भी प्रतिज्ञा की कि जबतक शिव स्वयं नहीं बुलाएंगे, मैं पृथ्वी पर नहीं आऊंगी। ईश्वरीय योजना के अनुरूप सती का पार्वती के रूप में हिमवान के घर जन्म हुआ। रिश्ते से गंगा पार्वती की ज्येष्ठ बहन हो गईं। पार्वती और गंगा के संबंधों का सर्वाधिक रोचक स्थल तब सामने आता है, जब भगीरथ के प्रयास से गंगा पृथ्वीलोक पर आने को तैयार होती हैं। स्वर्गलोक से पृथ्वी पर आने की बात से गंगा कुपित थीं। अपने तीव्र वेग से पृथ्वी का नाश कर देना चाहती थीं। भगवान शिव ने भूलोक की रक्षा के लिए गंगा को अपनी जटाओं में धारण कर लिया।
जटा में देख कुपित थीं पार्वती
एक दिन गंगा जटाओं से समुद्गत हो गईं और शिव जटाओं में छुपाने लगे, तो पार्वती की नजर पड़ गई। पार्वती से यह सहन हुआ। उन्होंने कहा-जिसे आप छुपा रहे हैं, उसे प्रकट कर प्रेम कीजिए। शिव तैयार नहीं हुए। पार्वती ईर्ष्या से कुपित थीं। उन्होंने अपनी परेशानी गणेश को बताई। गणेश ने जया ब्रह्मा के सहयोग से गौतम ऋषि को गोहत्या के पाप में फंसाया। फिर ब्रह्मा ने पापमुक्ति के लिए शिव को प्रसन्न कर गंगा को विमुक्त करने के लिए तैयार किया। गौतम ऋषि ने सोचा कि ठीक ही है, गंगा पृथ्वी पर आएंगी, जो सबके लिए श्रेयस्कर होगा। मेरा भी पाप नहीं रहेगा। यद्यपि यह पौराणिक प्रसंग है, पर इसे लोककल्याण के लिए ईश्वरीय योजना के रूप में स्वीकारना श्रेयस्कर होगा।

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