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Friday 15 July 2016

लेखक का जिंदा रहना जरूरी

चर्चित तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन ने कहा है- फूल फिर खिलेगा। वस्तुतः ये शब्द उन्होंने उनके खिलाफ चलाये जा रहे एक मुकदमे में मद्रास हाइकोर्ट के निर्णय के संदर्भ में कहे हैं। संदर्भ उनके उपन्यास ‘मधोरुबगन’ का है, जिसे लेकर लगभग डेढ़ साल पहले तमिलनाडु में हिंसक प्रदर्शन हुए थे। प्रदर्शनकारियों का कहना था कि मुरुगन ने अपने उपन्यास में एक क्षेत्र विशेष के लोगों की भावनाओं को आहत किया हैं। रोचक बात यह है कि यह उपन्यास चार साल पहले छपा था और इसका अंगरेजी अनुवाद भी हो चुका है। मामला बढ़ा तो मुरुगन को माफी मांगनी पड़ी. इससे कट्टरपंथी गुटों को तो कुछ शांति मिली, पर मुरुगन के भीतर अशांति की आग-सी
जलने लगी। वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि अचानक किसी को उपन्यास का कथ्य आपत्तिजनक क्यों लगने लगा। वे इस असहिष्णुता और असंवेदनशीलता को नहीं स्वीकार पाये और उन्होंने घोषणा कर दी कि लेखक मुरुगन मर गया। फिर कभी न लिखने का निर्णय करके वे अध्यापन के अपने काम में लग गये। कट्टरपंथी अब भी असंतुष्ट थे। न वे सर्जक की अभिव्यक्ति के अधिकार को स्वीकार कर रहे थे और न ही साहित्य के निहितार्थों को समझना चाहते थे। वे अदालत में गये कि पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया जाये। लेकिन अदालत को यह मांग गलत लगी और उसने निर्णय दे दिया है कि न तो पुस्तक पर प्रतिबंध लगाना सही है और न ही किसी लेखक को लिखने से रोकना। मद्रास हाइकोर्ट ने फैसला दिया है कि- ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना अदालत और सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है। प्रशासन के अधिकारियों को साहित्य और कला के संदर्भ में संवेदनशील किये जाने की जरूरत है।’ अदालत के इस महत्वपूर्ण फैसले के अंतिम शब्द हैं- ‘लेखक को वह करने दो जो उसका काम है, और उसका काम है लिखना।’ इस फैसले की प्रतिक्रिया में ही पेरुमल मुरुगन ने फिर से फूल खिलनेवाली बात कही है। लेकिन, समाज का कट्टरवादी तबका फैसले को स्वीकार नहीं कर पा रहा। संभव है मामला सुप्रीम कोर्ट में भी पहुंचे. सवाल है कि आखिर क्या है इस उपन्यास में जिसे लेकर कानून-व्यवस्था को बनाये रखने की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी? संक्षेप में, यह उपन्यास एक क्षेत्र विशेष के लोगों के जीवन से जुड़ा है, जिसमें उनकी परंपराओं, जीवन-शैली का चित्रण है। तमिलनाडु के एक गरीब निसंतान दंपत्ति की इस कहानी में तत्कालीन समाज में प्रचलित ‘नियोग’ प्रथा का विवरण है। कट्टरपंथियों की मुख्य आपत्ति यह है कि इससे उस क्षेत्र के वर्ग-विशेष की भावनाएं आहत हुई हैं। कोर्ट ने अपने निर्णय में हमारे प्राचीन साहित्य में ऐसे चित्रण का हवाला देते हुए इस आपत्ति को खारिज किया है और कहा है कि यदि आपको कोई पुस्तक नहीं पसंद आ रही है, तो उसे मत पढ़ें। यह पाठक की आजादी भी है और उसका अधिकार भी। लेकिन दूसरे के अधिकार का हनन करके अपने अधिकार की रक्षा करना गलत है। गौरतलब है कि नियोग की प्रथा का चित्रण तो महाभारत में भी है। यह पहली बार नहीं है जब किसी पुस्तक पर आपत्ति उठायी गयी है। पर अब तक का इतिहास यही बताता है कि शायद ही किसी अदालत ने किसी पुस्तक या कलाकृति पर प्रतिबंध को उचित ठहराया हो। शांति-व्यवस्था के नाम पर किसी भी नागरिक की अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार नहीं छीना जा सकता। फिर, भावनाओं के आहत होने के तर्क का भी क्या आधार है? बाल-विवाह या सती प्रथा जैसी गलत परंपराओं को भी भावनाओं के आहत होने के साथ जोड़ा जा सकता है। लेकिन क्या किसी भी सभ्य, विवेकशील समाज में ऐसी परंपराओं को स्वीकार किया जा सकता है? कोई संवेदनशील, विवेकी रचनाकार ऐसी परंपराओं का विरोध क्यों न करे? फिर भी, यदि ऐसी कोई बात किसी लेखक ने लिखी है, जिस पर किसी को आपत्ति है, तो वह अपनी आपत्ति दर्ज करा सकता है। विचार का विरोध विचार से होता है, विचार करनेवाले का गला दबाने से नहीं। जब पेरुमल मुरुगन ने अपने लेखक के मरने की बात कही थी, तो भारतीय समाज के प्रबुद्ध तबके ने इस ‘मृत्यु’ पर शोक व्यक्त किया था। पेरुगन के न लिखने के निर्णय को ‘आत्महत्या’ कहा गया था. किसी भी स्तिथि में की जाये, ‘आत्महत्या’ अपराध है। मद्रास हाइकोर्ट का पेरुमल की पुस्तक के बारे में दिया गया यह निर्णय इस ‘अपराध’ की पुनरावृत्ति को रोकने का एक कारगर कदम तो है ही, उन कट्टरपंथियों के लिए भी एक चेतावनी है, जो भावनाओं के नाम पर विवेक की आवाज दबाना चाहते हैं। डेढ़ साल पहले आहत मुरुगन ने फेसबुक पर लिखा था, ‘लेखक पेरुमल मुरुगन मर चुका है’। अब अदालत ने घोषित किया है, लेखक मुरुगन जिंदा है। मुरुगन ही नहीं, हर लेखक का, सृजनात्मक कलाकार का जिंदा रहना जरूरी है, तभी हम सभ्य, विवेकशील समाज होने का दावा कर सकते हैं।
विश्वनाथ सचदेव

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