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Friday 22 July 2016

क्या दलित सिर्फ 'वोट बैंक' है?

सुरेश गांधी
‘दलित वोट‘ पर दंगल जारी है। यूपी में दलित वोट की गोलबंदी की कवायद में लगी पार्टियां सारी सीमाएं लांघ सिर्फ और सिर्फ अपनी नेतागिरी चटकानें में मसगूल है। दलितों की अन्य उत्पीड़नात्मक कार्रवाईयों पर चुप्पी न तोड़ने वाली मायावती जब दयाशंकर की टिप्पणी से आहत हुई तो उनके अनुयायियों की सब्र बांध इस तरह टूटा कि गाली का जवाब गाली से देना ही मुनासिब समझा। दया की टिप्पणी कहीं गले की फांस न बन जाएं और दलितों के आक्रोश का कोपभाजन न बनना पड़े आनन-फानन में बीजेपी ने न सिर्फ पद छीना बल्कि छः साल
तक के लिए बाहर का रास्ता दिखा दिया। तो राहुल गांधी गुजरात में हिंसा के शिकार हुए दलितों के जख्म पर सहानुभूति का ‘मरहम‘ लगाते दिखाई दिए, तो बाकी की पार्टिया संसद में मायावती की तरफदारी में सुर में सुर मिलाते नजर आएं। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है कि क्या बाकी घटनाओं में दलितों के साथ हो रहे अत्याचार पर मायावती समेत अन्य राजनीतिक दलों को क्यों नहीं गुस्सा आता। आखिर क्या वजह है कि इन सियासी दलों को दलितों की याद चुनाव के दरम्यान ही क्यों आती है? अगर दलितों के प्रति उनकी इतनी ही निष्काम निष्ठा भक्ति रही तो फिर आजादी के 68 सालों बाद भी उनके सपने को धरातल पर क्यों नहीं उतारा गया?
बेशक, यूपी व पंजाब में विधानसभा चुनाव का शोर तेज होने के साथ ही राजनीतिक दलों को दलितों के कुल 20-22 फीसदी वोटों की चिंता सताने लगी है। भले ही दलितों के मुद्दे अभी राजनैतिक सवाल नहीं बन पाए हैं, लेकिन उनके वोट को लपकने की बेचौनी सभी दलों में साफ-दिखाई देती है। शायद यही वजह है कि गुजरात के उना में कथित रूप से मृत गाय की खाल उतारने को लेकर दलित युवकों की पिटाई पर भड़का दलितों के जनाक्रोश की आग अभी बुझी भी नहीं कि यूपी में मउ के भाजपाई नेता दयाशंकर ने बसपा सुप्रीमों मायावती पर आपत्तिजनक टिप्पणी घी का काम कर गया। दोनों वाकयों को लेकर राजनीतिक गलियारे में भूचाल आया तो आक्रोशित दलितों ने भी गुजरात, यूपी व पंजाब सहित देशभर के सड़कों पर उतरकर गाली का जवाब गाली से देकर हंगामा किया। मायावती को देवी समझने वाले समर्थकों ने गाली का जवाब गाली से दिया तो पंजाब में दयाशंकर सिंह की जीभ काटकर लाने वाले को 50 लाख का ईनाम भी घोषित कर दिया। तो गुजरात में पिटाई से आहत दर्जनभर दलितों ने जहर खाकर जान देने की कोशिश की। लेकिन जहां तक दलितों के उत्पीड़न, बलातकार, अभद्र टिप्पणी आदि का मसला है तो नया नहीं है। 
इसके पहले भी जगह-जगह उनके साथ दुराचार से लेकर उत्पीड़नात्मक कार्रवाईयां की गयी है। लेकिन इस तरह का बखेड़ा नहीं पैदा की गयी। मतलब साफ है जो कुछ हुआ या होने वाला है सब सियासी वोट बैंक से इतर कुछ भी नहीं। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर तमाम सुविधाएं, आरक्षण व विभिन्न योजनाओं के जरिए उन्हें उंचा उठाने की कोशिशों के बावजूद अभी तक क्यों पिछड़े है? साक्षरता दर अन्य के मुकाबले काफी कम है। बेरोजगारी दर जस की तस है। सरकारी नौकरियों में 4 प्रतिशत से अधिक नहीं है। क्या आरक्षण से ही दलितों की समस्याएं दूर हो जायेंगी? आखिर क्या वजह है कि वोट बैंक समझने वाली राजनीतिक पार्टिया इनकी बुनियादी समस्याएं दूर नहीं कर पा रही है? जितना हो हल्ला या हंगामा अब मचा है क्या इसके पहले भी मूलभूत आवश्यकताओं को लेकर धरना-प्रदर्शन किए? ये ऐसे सवाल है जिसका जवाब हर कोई जानना चाहता है। 
बता दें, यूपी में कुल दलित मतदाता तकरीबन 3,51,48,377 हैं। यह प्रदेश की कुल आबादी का 21.15 प्रतिशत है। इस आबादी का करीब 16.2 दलित मतदाता गांवों में निवास करता है। इसी वोट के बूते कांग्रेस ने यूपी में काफी सालों तक सत्ता हासिल करती रही। लेकिन कांशीराम के दलित उत्थान व मायावती के प्रति जागा दलितों का प्रेम कांग्रेस को न सिर्फ बौना बनाकर रख दिया, बल्कि मृत्युशैया तक पहुंचा दी। दलितों की रहनुमा बनी मायावती ने दलित महापुरुषों के नाम पार्कों की स्थापना की। उनमें दलित महापुरुषों की मूर्तियां लगवाकर दलितों के साम्राज्य स्थापना की एक बड़ी लकीर खींच दी। फिर बाद में इन्हीं पार्क स्थलों पर दलितों को बुलाकर उनके जमीर को जगाने का काम किया। अपार भीड़ ने मायावती के हौंसले को और बढ़ा दिया। लेकिन बसपा नेत्री इस मुग्धता में यह भूल बैठीं कि केवल महापुरुषों की मूर्तियां व अपनी मूर्तियां बनवाने से किसी दलित का विकास नहीं हो जाता, उसे जमीनी तौर पर विकास की धारा में लाना चाहिए। कुछ ऐसा ही समीकरण पंजाब का है। यहां दलित मतदाताओं की तादाद तकरीबन 32 फीसदी है। जालंधर होशियारपुर, लुधियाना व नवाशहर में उनकी बहुलता है। नवाशहर कांशीराम की जन्मस्थली है और उन्होंने यहीं से दलित राजनीति की शुरुआत की। 
पंजाब की 117 सीटों में 42 सीटें ऐसी हैं जिनपर दलित वोटबैंक निर्णायक स्थिति में है। यहीं कारण है कि इन मतों पर एकछत्र राज कर रही मायावती के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए भाजपा, कांग्रेस और अकालियों के बीच हाल के दिनों में दलित प्रेम कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। उन्हें अपनाने की होड़ मची है। शायद मायावती के बौखलाहट की यही वजह भी है कि जो गुजरात में हुए दलित पिटाई को लेकर संसद में भाजपा समेत अन्य दलों को कटेघरे में खड़ी रही थी कि यूपी के भाजपा उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह ने उन पर अभद्र टिप्पणी कर संजीवनी थमा दी। बाजी हाथ से निकल न जाए इसलिए उन्होंने दुसरे दिन ही दलितों को सड़क पर उतरने का आह्वान कर दिया। भीड़ जमा हुई तो उत्साह से लबरेज कुछ उग्र कार्यकर्ताओं ने गाली का जवाब गाली से दे डाली। अब उसी गाली को आधार बनाकर दयाशंकर सिंह की बेटी व पत्नी मीडिया की सुर्खिया बन गयी है। इसका नफा-नुकसान किसे कितना होगा यह तो पंजाब व यूपी विधानसभा चुनाव परिणाम बाद पता चलेगा। लेकिन सवाल फिर वही है दलित पिछड़ेपन का। क्यों नहीं इतना उग्र राजनीतिक पार्टिया उनके हक व अधिकारों को लेकर हो पाती है। 
सवाल यह है कि इसके पहले हुए दलितों पर अत्याचार, दलित युवतियों से बलातकार आदि वारदातों को लेकर क्या बहन जी को इतना गुस्सा कभी आया है? जब न्यायपालिका ने प्रोन्नति में आरक्षण समाप्त किया तो वे न्यायपालिका में दलितों की भागीदारी के लिए सडक पर क्यों नहीं आईं? दलितों की आएं दिन होती हत्याएं, जल रही झोपड़ियाँ और दलितों के जमीन के सवाल पर वे दलितों को सडक पर आने के लिए क्यों नहीं कहती? हो जो भी दलितों के सडक पर आने से दिल्ली तक हिल गई और लगा कि दलित जब चाहें लाखों करोडो की संख्या में एकत्र हो कर कुछ भी हासिल कर सकते हैं। यह दूसरा अवसर है जब बहन जी ने दलितों से सडक पर आने को कहा, पहली बार तब जब उनकी प्रतिमा खंडित हुई थी और यह दूसरा अवसर है जब उन्हें अपशब्द कहे गये। आखिर क्या वजह है कि उन्हें तभी गुस्सा आता है जब उन पर हमले होते हैं? क्या दलितों पर हो रहे हमले और बहन जी पर हमला दोनों अलग अलग है? ये ऐसे प्रश्न है जो चुनाव के दौरान विपक्षियों के निशाने पर रहेंगी मायावती। 
हो जो भी, लेकिन यह सच है कि चाहे गुजरात का ऊना की घटना हो या मायावती पर अभद्र टिप्पणी के बाद गाली का जवाब गाली जैसी घटनाएं सभ्य समाज के माथे पर कलंक और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि को मलिन करने वाली है। इसकी जितनी भी निंदा किया जाय कम है। पिछली घटनाओं पर नजर दौड़ाएं तो देश के अलग-अलग हिस्सों में आए दिन दलित उत्पीड़न के मामले सामने आते ही रहते हैं। ज्यादातर घटनाओं के पीछे कथित ऊंची जाति वालों की दलितों के प्रति दुर्भावना और यह अहंकार ही होता है कि हम तो ऊंचे हैं। यह सामंती मानसिकता है। दलित वर्ग के तमाम लोग वे अनेक काम करते हैं जिन्हें अन्य हाथ लगाना तक पसंद नहीं करते। इसके लिए शेष समाज को तो उनका शुक्रगुजार होना चाहिए, लेकिन अक्सर देखने में आता है कि उन्हें आवश्यक न्यूनतम सम्मान तक देने से इंकार किया जाता है। यही वजह है कि इस ज्यादीति के खिलाफ महात्मा गांधी की जन्मस्थली पोरबंदर समेत पूरे सौराष्ट्र से फूटा दलितों का गुस्सा अब सड़कों पर दिखने लगा है। यह आक्रोश उस पाखंड के विरुद्ध है, जो गोरक्षा के नाम पर मरे हुए जानवरों का निस्तारण भी करने की इजाजत नहीं देता। इस काम के मान-सम्मान के बारे में तमाम बहसें हैं, लेकिन यह काम सदियों से होता रहा है और इसके साथ चमड़े का पारपंरिक व्यवसाय भी जुड़ा है। इस तरह यह आजीविका का भी मुद्दा है। राजनीतिक वर्ग दलितों के प्रति समाज की सोच बदलने में सहायक हो सकता है, लेकिन दुर्भाग्य से वह दलित हितैषी बनने का दिखावा ही अधिक करता है।

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