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Tuesday 17 May 2016

यूपी में कृष्ण−सुदामा कब साथ पढ़ेंगे?

आशीष वशिष्ठ
2011 में तमिलनाडु के इरोड जिले के कलेक्टर आर. आनंदकुमार ने जब अपनी छह साल की बेटी को एक सरकारी स्कूल में दाखिल कराया, तो यह घटना एक राष्ट्रीय खबर बन गई। स्कूल के स्तर पर भी इसका असर देखने को मिला था। कलेक्टर की बच्ची के सरकारी स्कूल में जाते ही सरकारी अमले ने उस स्कूल की सुध लेनी शुरू कर दी और उसकी दशा पहले से बेहतर हो गई। जाहिर है, अगर यह अपवाद आम व्यवहार बन जाए तो बड़े बदलाव देखने को मिल सकते हैं। शायद इसी को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर, 2014 में केंद्र सरकार से कहा था कि जिस तरह से सरकारी मेडिकल कॉलेज सबसे अच्छे माने जाते हैं उसी तरह से सरकार देश भर में अच्छे स्कूल क्यों नहीं खोलती है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी पिछले साल अगस्त में एक महत्त्वपूर्ण फैसला देते हुए उत्तर प्रदेश सरकार से कहा था कि सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों और चुने हुए जनप्रतिनिधियों के बच्चे अनिवार्य रूप से सरकारी प्राइमरी स्कूलों में पढ़ें। और इसकी अवहेलना करने वालों पर कड़ी कार्रवाई हो। इस फैसले का आम जनता द्वारा तो खूब स्वागत किया गया, लेकिन संपन्न वर्ग की प्रतिक्रिया थी कि पालकों को यह आजादी होनी चाहिए कि उन्हें अपने बच्चों को कहां पढ़ाना है। हाईकोर्ट के इस आदेश के बावजूद उत्तर प्रदेश के मंत्री और नौकरशाह इस पर अमल के लिए तैयार नहीं हुए। पिछले दिनों जो खबरें आर्इं, उनके अनुसार उत्तर प्रदेश सरकार हाईकोर्ट के इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) दाखिल करने की तैयारी में है। यह एक ऐसा दौर है जब तमाम ताकतवर और रुतबे वाले लोग सरकारी स्कूलों के निजीकरण' के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं।
हैरानी की बात यह है इलाहबाद हाई कोर्ट के आदेश के लगभग दस महीने बाद भी ऐसी एक भी खबर सुनने−पढ़ने को नहीं मिली कि यूपी के करीब 40 लाख सरकारी कर्मचारियों और अफसरों ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिला दिलाया है। सरकारी खजाने से वेतन पाने वालों में आईएएस, आईपीएस, आईएफएस अफसर, एलएलए, एमपी समेत सरकार से वेतन या मानदेय पाने वाला हर शख्स शामिल है।
पिछले दो−तीन दशकों में यह धारणा बलवती हुई कि कि हमारे यहां बड़े लोगों के बच्चे सरकारी प्राइमरी स्कूलों में नहीं पढ़ते। चूंकि समाज का प्रभावशाली और समर्थ वर्ग अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाता है इसलिए सरकारी स्कूल बदहाली और बदइंतजामी का शिकार हैं। वर्तमान में सरकारी स्कूल में जिस वर्ग या समूह के बच्चे शिक्षा ग्रहण करने जाते हैं। उस वर्ग के माता−पिता और  अभिभावक सरकारी मशीनरी के सामने हाथ बांधकर ही खड़े होते हैं। किसी रसूखदार या रूतबे वाला का बच्चा सरकारी स्कूल में जाए और मास्टर उसे पढ़ाने की बजाय टाइम पास करने की हिमाकत नहीं कर सकता है। जब सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाला बड़ा समूह समाज के वंचित, पिछड़े और गरीब लोगों का है तो वहां पढ़ाई या अन्य सुविधाओं को लेकर स्कूल प्रशासन या मंत्रालय का बेफिक्र होना कोई खास बात नहीं है।
यदि हम शिक्षा का स्तर सुधारना चाहते हैं तो शिक्षा प्रणाली बदलनी पड़ेगी। प्राइवेट स्कूल लगातार फल फूल रहे हैं, सरकारी स्कूल बेदम हैं। सर्व शिक्षा अभियान के तहत सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ी है, लेकिन सुधारों का सिलसिला रुक सा गया है। सबसे बड़ी मुश्किल शिक्षकों की तैनाती को लेकर खड़ी हुई है। उनकी कमी पूरे देश में है, पर उत्तर के राज्यों की स्थिति ज्यादा खराब है। उत्तर प्रदेश की स्थिति को संवारना आसान नहीं है और सरकार की इच्छा शक्ति लंबे समय से कमजोर रही है।
आज देश में बहुत बड़ी संख्या ऐसे प्राइवेट स्कूलों की है जो सरकार सहायता नहीं लेते। ये स्कूल अपना खर्च ऊंची फीस लेकर चलाते हैं। शहरी मध्य वर्ग अपने बच्चों को इन्हीं स्कूलों में पढ़ाना पसंद करता है। सरकारी अधिकारी और नेताओं के बच्चे इन्हीं स्कूलों में पढ़ते हैं। मामला सिर्फ वर्दी और अंग्रेजी का नहीं है। इन स्कूलों की साख इस कारण भी है कि वे कायदे से यानी नियम से चलते हैं। इनकी तुलना में सरकारी स्कूल कमजोर दिखते हैं। ये स्कूल लगभग मुफ्त शिक्षा देते हैं पर आज उनमें मुख्यतः निर्धन वर्गों और निचली जातियों के बच्चे दिखाई देते हैं। सर्व शिक्षा अभियान के तहत सरकारी स्कूलों की तादाद बढ़ी है। वैसे सरकारी अनुदान से चलने वाले स्कूल पहले से ही उत्तर प्रदेश में काफी बड़ी संख्या में रहे हैं। आज छोटे से छोटे गांव में प्राइमरी स्तर का सरकारी स्कूल है। उसके समानांतर गांव−गांव में अंग्रेजी माध्यम का दावा करने वाले प्राइवेट स्कूल खुल रहे हैं।
सामाजिक हवा का इशारा है कि पढ़ाई इन्हीं में होती है। सरकारी स्कूल में तो बस खाना मिलता है, वर्दी और वजीफा बंटता है। बच्चों के स्तर पर समाज का बंटवारा हो चुका है। जो भी थोड़ी बहुत हैसियत रखता है और फीस दे सकता है, अपने बच्चों को सरकारी स्कूल से हटा लेना चाहता है। उत्तर प्रदेश में निर्धन मजदूर और छोटे किसानों का वर्ग बहुत बड़ा है। इसलिए सरकारी स्कूलों में भी बच्चों की संख्या काफी बढ़ी है। शिक्षा का अधिकार कानून आने के बाद से इन स्कूलों की इमारत और सुविधाएं भी सुधरी हैं, पर एक समस्या लगातार बनी रही है और इधर के सालों में विकराल रूप लेती जा रही है, यह समस्या है शिक्षकों की कमी की। उत्तर प्रदेश में सरकारी प्राइमरी और सेकेंडरी स्कूलों में 270000 शिक्षकों की कमी है। कहीं−कहीं स्कूल इतने छोटे हैं कि बच्चों को पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ना पड़ता है। हिंदी का टीचर कंप्यूटर पढ़ाता है और उर्दू का गणित पढ़ा रहा है।
इस समस्या का दूसरा चेहरा है शिक्षकों में उत्साह के अभाव का। उन पर नौकरशाही का दबदबा लगातार रहता है। जोड़तोड़ के बल पर अनेक शिक्षक अपना तबादला शहरी इलाकों में करा लेते हैं। उत्तर प्रदेश की आम सच्चाई है कि गांव का सरकारी स्कूल एक दो शिक्षकों के सहारे चलता है और शहर के स्कूलों में जरूरत से ज्यादा शिक्षक हैं। इस व्यवस्था के बीच कई अन्य समस्याएं बुदबुदाती रहती हैं, जैसे अधूरा वेतन पाने वाले पैरा शिक्षकों का असंतोष, स्कूल में साफ सफाई की समस्या, मरम्मत के लिए महीनों का इंतजार।
 कोर्ट की राय में सरकारी स्कूल इसलिए बदहाल हैं क्योंकि समाज में हैसियत रखने वालों की संतानें वहां से चली गई हैं। अगर अफसरों और नेताओं के बच्चे वहां पढ़ेंगे तो शिक्षकों की नियुक्ति और टूटी हुई छतों और खिड़कियों की मरम्मत अपने आप हो जाएगी। न्यायधीशों की यह समझ और आशा तर्कसंगत है। जब फीस लेकर चलने वाले प्राइवेट स्कूल नहीं थे तो अफसरों के बच्चे आम नागरिकों के बच्चों के साथ ही पढ़ते थे। इतना जरूर है कि तब आम नागरिकों में मजदूर और छोटे किसान शामिल नहीं थे। आज उनके बच्चे भी स्कूल जा रहे हैं। अफसर, नेता और मजदूर के बच्चे प्राइमरी स्कूल में साथ साथ पढ़ेंगे तो समाज का बंटवारा घटेगा, शिक्षा का स्तर भी सुधरेगा, छुटपन से अंग्रेजी थोपे जाने की समस्या भी सुलझेगी। इतनी बीमारियों का एक साथ इलाज सपने जैसे लगता है।
हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद यूपी के मंत्री, विधायक व अफसर अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने को हरगिज तैयार नहीं हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा तय समय सीमा 6 माह बीत जाने के बाद भी सरकार हाईकोर्ट के आदेश पर अमल की दिशा में आगे कदम नहीं बढ़ा पाई है। दरअसल वह इस व्यवस्था को लागू करने के पक्ष में नहीं है। राष्ट्रीय लोकदल के विधायक सुदेश शर्मा ने विधानसभा में एक सवाल के जरिये सरकार से जानकारी मांगी थी कि क्या इस व्यवस्था को लागू कराने के लिए कोई कार्य योजना तैयार की गई है? इस पर सरकार की ओर से लिखित जवाब दिया गया कि हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ न्याय विभाग के परामर्श से सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दाखिल करने का फैसला किया गया है। इस बाबत आदेश जारी कर दिए गए हैं। हालांकि बेसिक शिक्षा विभाग के अधिकारियों का कहना है एसएलपी दायर करने के बारे में अभी कोई फैसला नहीं किया गया है। सचिव आशीष गोयल ने कहा कि अभी इस पर विचार−विमर्श चल रहा है।
आजादी के 67 वर्षों बाद भी आज तक एक भी सरकार यह नीति नहीं बना पाई कि मास्टरों और विधायक−कलक्टर एसपी के बच्चे सरकारी स्कूल में ही पढ़ेंगे। ऐसा होता तो देखते सरकारी स्कूलों का स्तर क्या होता? अब भी क्या मंत्री और विधायक यह संकल्प लेकर निर्णय कर सकते हैं? प्रदेश के किसी मास्टर से लेकर आईएएस का बच्चा सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ता है। ऐसे में इनके हालात खराब होंगे ही। कानून के कई जानकार इस फैसले से इत्तेफाक नहीं रखते। उनका कहना है कि यह संविधान से मिले मौलिक अधिकार के खिलाफ है। उनका मत है कि जिन 40−50 लाख लोगों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ना जरूरी किया जा रहा है, वे सभी लोग प्राइमरी शिक्षा के खराब स्तर के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। जो लोग जिम्मेदार हैं, सजा उन्हें दी जा सकती है, लेकिन उनके बच्चों को खराब स्कूल में पढ़ने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। यही नहीं इस पर अमल व्यवहारिक रूप से भी काफी मुश्किल होगा।
साभार— प्रभासाक्षी

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