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Sunday 29 May 2016

साम्प्रदायिक सौहार्द के प्रतीक गणेश शंकर विद्यार्थी

डा. ब्रजेश कुमार यदुवंशी
हिन्दी पत्रकारिता से जुड़े लोगों ने राष्ट्रहित, समाजहित में संघर्षरत रहते हुए साम्प्रदायिक सौहार्द और सद्भाव के लिए अपने प्राणों तक की आहूति दे दी, जिसमें एक प्रमुख नाम है - गणेश शंकर विद्यार्थी जी का। उनके बलिदान पर जोश मलीहाबादी की पंक्तियां बरबस याद आ जाती है
गणेश शंकर विद्यार्थी
इस जमीं को तेरी नापाक न होने देंगे।
तेरे दामन को कभी चाक न होने देंगे।
तुझ को जीते हैं तो गमनाक न होने देंगे।
ऐसी अक्शीर को यूं खाक न होने देंगे।
जी से ठानी है यही, जी से गुजर जाएंगे।
कम से कम वादा ये करते हैं कि मर जाएंगे...।
जब 1931 में कानपुर में बहशियाना हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक फसाद हुए तो अपनी प्यारी जमीन को नापाक होने से बचाने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी। पं. जवाहर लाल नेहरु ने अत्यंत मर्मस्पर्शी श्रद्धांजलि में लिखा है : रंज हुआ और दिल को समझाने पर भी दिल समझता नहीं। लेकिन रंज की क्या बात है? गणेश जी जैसे जिए वैसे ही मरे।
महात्मा गांधी ने कहा था मुझे जब उसकी याद आती है तो उससे ईष्र्या होती है। इस देश में दूसरा गणेश शंकर क्यों नहीं होता? कितने ऐसे लोग होंगे जिनमें अपने सिद्धान्तों पर अडिग रहने का साहस होता है, जो मृत्यु का वरण कर सकते हैं पर अपने सिद्धान्तों को नहीं छोड़ सकते? जब कानपुर में दंगे हुए तो लाखों की सम्पत्ति एक दो दिन में नष्ट हो गयी। तब एक दुबला पतला कलम का सिपाही निहत्था मानवता को बचाने सड़कों पर निकल पड़ा। एक मुसलमान और दो हिन्दू स्वयंसेवकों के साथ। बालकृष्ण शर्मा नवीन ने लिखा है : 'कानपुर में अधिकारी दानव हो गये थे, कानपुरवासी दानव हो गये थे। मानवता का अवशेष लुप्त हो गया तो क्या एक मानव कानपुर में बच रहा था।' गणेश शंकर विद्यार्थी महान देशभक्त थे। देश की उदारता की, सहिष्णुता की, वसुधैव कुटुम्बकम की महान परम्पराओं पर उन्हें गर्व था। उनके अखबार प्रताप का तो आदर्श वाक्य - मोटो ही था :
जिसको न निज गौरव तथा
निज देश का अभिमान है
वह नर नहीं नरपशु निरा है,
और मृतक समान है।
प्रताप का पहला सम्पादकीय उनकी संकीर्णता को दूर हटाने की मनोवृत्ति को स्पष्ट करता है। आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना एक नवम्बर 1913 को था, जिस दिन प्रताप का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता निर्भीक थी तो निष्पक्ष भी थी। वे जब तक सभी तथ्यों की पड़ताल नहीं कर लेते थे तब तक कुछ नहीं लिखते थे। वे पत्रकारों से कहते थे : जब किसी के विरुद्ध लिखो तो यह मानकर लिखो कि वह व्यक्ति तुम्हारे सामने बैठा है और कभी भी तुमसे जवाब तलब कर सकता है। हिन्दी पत्रकारिता ने देश को जोड़ने का काम किया है। अहिन्दी भाषी रहते हुए भी मोहनदास करमचंद गांधी, बाबू विष्णु राव पराड़कर, बालगंगाधर तिलक आदि ने हिन्दी पत्रकारिता को ऊंचाई प्रदान किया। आज हम हिन्दी पत्रकारिता दिवस के बहाने गणेश शंकर विद्यार्थी को नमन करते है।
लेखक जाने माने साहित्यकार व अनुसंधान यात्रा के सम्पादक हैं।

साभार—तेजस टूडे

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