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Friday 12 February 2016

मोदी जी देशद्रोहियों को निपटाएं...

 सुरेश गांधी
शून्य से ५५ डिग्री नीचे ६ दिनों तक जिंदगी के लिए संघर्ष करके अमर हो गए सियाचीन के दस योद्धाओं की रुह भी आज रो रही होगी। धिक्कार है इस देश को जहां २२,५०० फीट उंचाई पर शहीद १० सैनिकों ने क्या इसीलिए शहादत कि देश की संसद हमले के दोषी आतंकी अफजल गुरु की बरसी मनाई जाय। पाकिस्तान जिन्दाबाद, हाफिज सईद जिंदाबाद समेत देश विरोधी कई नारे लगाए जाय। खासकर वहां, जिसे देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त है। जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) बुद्धिजीवियों का गढ़ कहा जाता रहा है। ऐसे शिक्षण संस्थान में कुछ छात्रों की सोच पूरी तरह देशद्रोही है। ऐसे में सवाल यही है जनता की कमाई से कब तक पलेंगे देशद्रोही? कब तक इन देशद्रोहियों को हमारा देश सहेगा? प्रेस क्लब में भारत विरोधी नारों की जिम्मेदारी किसकी है? क्या इसके लिए प्रशासन जिम्मेदारी नहीं?
जेएनयू हो या प्रेस क्लब, जब देश के खिलाफ देशद्रोहियों व आतंकवादियों द्वारा नारेबाजी की जायेगी, कार्रवाई होगी और होनी भी चाहिए। लेकिन दुख है कि जेएनयू में वह सब कुछ हुआ जो नहीं चाहिए। जिस देश की सुरक्षा के लिए हमारे जवान प्राणों की चिंता किए बगैर सीमा पर तैनात है, दुश्मनों की गोलियों से शहीद होते है। ऐसे जवान हनुमंतथप्पा जिंदगी और मौत से जब जूझ रहे थे, तब शिक्षा के मंदिर जेएनयू कैम्पस में भारत विरोधी नारे लगाएं जा रहे थे। संसद हमले का आरोपी अफजल गुरु की बरसी मनाई जा रही थी। कितने अफजल मारोगे, घर-घर पैदा होंगे अफजल व देश की बर्बादी होने तक जारी रखेंगे आंदोलन जैसे नारे गूंज रहे थे और जब पुलिस हरकत में आई और मामले में छात्रसंघ अध्यक्ष कंहैया को गिरफ्तार किया तो इस कार्रवाई को भी विपक्ष सियासी चश्मे से देखने लगा। भारत विरोधी नारे लगाने वालों की हिमाकत करती नजर आ रही है। पुलिस पर आरोप लगाएं जाने लगे कि यह कार्रवाई सत्ता के पक्ष के दवाब में किया गया है। जबकि सच तो यह है कि भारत विरोधी इस नारे से हर भारती का खून खौल रहा है। तो फिर सवाल यही है क्या तिरंगे पर सियासत भारी है?
बेशक, हाल के दिनों में चाहे वह सम्मान लौटाने का प्रकरण रहा हो या मुठभेड़ में मारी गयी इसरतजहां को भारत की बेटी बताने का वाकया। इन सोचों व विचारधाराओं से तो यही लगता है जैसे भारत में देशद्रोही सोच की धारा बह रही है। बुद्धिजीवियों का गढ़ कहा जाने वाला जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) जैसे शिक्षण संस्थान में कुछ छात्रों की सोच न सिर्फ देशद्रोही है, बल्कि धारा प्रवाह तरीके से देश विरोधी नारेबाजी हो रही है। ऐसा लगता है कि देशद्रोही सोच से ग्रस्त लोगों के मन में कानून की धाराओं का खौफ ही नहीं है। जबकि देशद्रोहियों के खिलाफ फांसी तक की सजा का प्रावधान है। बावजूद इसके देश की हवाओं में नफरत का जहर घोलने वाले लोग खुलेआम अपनी देशद्रोही सोच को इजहार कर रहे है। दरअसल ऐसे देशद्रोही लोगों को हमारे देश की राजनीति ने पाला-पोशा है। लेकिन अब वह वक्त आ गया है जब हमारे राजनीतिक सिस्टम को ये सोचना होगा कि वोट बैैंक हित बड़ा है या फिर देशहित बड़ा है। शायद यही वजह है कि हिन्द नायक हनुमंतथप्पा की आत्मा सांस लेने से इसलिए इंकार कर दिया कि यहां के हवाओं में के भारत विरोधी नारे तैर रहे है। यह कितनी दुखद बात है कि जहां देश के लिए शहीद होने वाले बहादुर सैनिकों पर गर्व होना चाहिए वहां देश विरोधी नारे लगाएं जा रहे है। बर्फ से जंग करने वाले हिन्दनायक हनुमंतथप्पा जैसे शहीद जवानों का मजाक उड़ाया गया। ऐसे सवाल यही है कि मोदी जी आतंकवादियों को नेस्तनाबूद करने के लिए आपने तो देश की सीमाओं से लेकर सात समुंदर पार तक जाल बिछा दिया है, लेकिन अपने ही देश में पल-बढ़ रहे आतंकियों से कैसे निपटोंगे, खासकर उस देश में जहां आतंकी नूसरत को भारत की बेटी बताने वालों की कमी नहीं है और अफसल गुरु को शहीद। मतलब साफ है मोदी जी पहले देश में पल-बढ़ रहे देशद्रोहियों को निपटाओं, जो आतंकियों के एक ईशारे पर कुछ भी करने को आमादा है। अगर इन द्रेशद्रोहियों को आने निपटा दिया तो आतंकी तो खुद-ब-खुद निपट जायेंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि परवेज मुसर्फ खुद कहा है भारत को निपटाने के लिए उसे कुछ कार्रवाई करने की जरुरत नहीं, भारत में सिर्फ एक फोन करने की जरुरत है।
२००४ में इंटेलिजेंस ब्यूरों का इनपुट था कि इसरतजहां एक आतंकवादी है। १५ जून २००४ को अहमदाबाद गुजरात में पुलिस एंकाउंटर के बाद में पहली बार सितम्बर २००९ में एनकाउंटर को फर्जी करार दे दिया। लेकिन आज जब हेडली ने साफ कर दिया है कि वह आतंकी थी। बावजूद इसके विपक्ष इसे भारत की बेटी कहने से बाज नहीं आई। एनसीपी नेता लाख रुपये का चेक भी दें आएं। गवाही में हेडली ने मुंबई हमले की पूरी साजिश बयां कर पाकिस्तान को फिर से बेनकाब किया, तो यह बता कर भारत का राजनीतिक तापमान भी बढ़ा दिया कि अहमदाबाद में वर्ष २००४ में पुलिस मुठभेड़ में मारी गयी मुंबई की कॉलेज छात्रा इशरत जहां असल में लश्कर-ए-तैयबा की सहयोगी थी। इशरत का एनकाउंटर फर्जी था या सही, यह कोर्ट को तय करना है, लेकिन देश की राजनीति १२ साल से इशरत जहां को एक राजनीतिक मोहरे के रूप में इस्तेमाल करती रही है। इसी कड़ी में हेडली के खुलासे के बाद राजनीतिक बयानबाजियों का सिलसिला फिर से शुरू हो गया है। हेडली के बयान को आधार बना कर भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने निशाना साधा है कि ‘इशरत को बेटी बताने वाले अब कहां गये?’ दरअसल, मानवाधिकारों की बहाली के लिए सक्रिय संगठनों ने इशरत की मौत पर सवाल उठाते हुए पुलिस मुठभेड़ को फर्जी बताया था और तब के राजनीतिक शोर-गुल में कांग्रेस सहित कुछ पार्टियों ने कमोबेश यही लाइन ली थी। हालांकि, इशरत की मौत से जुड़ा पूरा मामला कितना पेचीदा था, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि इसमें सीबीआई और आइबी की जांच अलग-अलग निष्कर्षाें पर पहुंची।
कहना गलत नहीं होगा कि अपने वोट बैैंक को तुष्ट करने के मकसद से कुछ दलों की ओर से समय-समय पर की जाने वाली तुच्छ राजनीति ने देश में दक्षिणपंथी ताकतों को फलने-फूलने के लिए खाद-पानी भी मुहैया कराया है और वह लगातार मजबूत हुई हैं। इस माहौल के बरक्स कुछ दशक पीछे के राजनीतिक परिदृश्य को याद करें जेपी, लोहिया और आचार्य नरेंद्रदेव जैसे कई नाम जेहन में उभरते हैं, जिन्होंने विपक्ष में रह कर भी देश हित को अपने दलगत हितों से हमेशा ऊपर रखा है। यदि हेडली सही है, तो यह कांग्रेस सहित तमाम राजनीतिक दलों और उनके बयानवीरों के लिए सबक है कि देश की एकता-अखंडता से जुड़ने वाले संवेदनशील मुद्दों पर ठोस सबूतों के बिना अधपकी बातें कहने से बचें। ऐसे मुद्दों पर सिर्फ दलगत हितों को ध्यान में रख कर राजनीतिक रोटियां सेंकने से राष्ट्रहित को हानि पहुंचना तय है। पिछले ही दिनो हैदराबाद की एक तथाकथित यूनिवर्सिटी में जब एक छात्र ने खुदकुशी कर ली थी तो उस समय भी यही राजनीतिक दल और उनके नेता अपनी गुस्से का इजहार करने के लिये उस दलित छात्र की मौत पर घड़ियाली आंसू बहाते हुए न सिर्फ मौजूदा सरकार को घेरने की कोशिश की बल्कि भूख हड़ताल की नौटंकी तक की। सवाल यह है कि जेएनयू जैसे देशद्रोही संगठन बिना सरकारी संरक्षण के तो चल नही सकते। पिछले ६० सालों मे जो हो रहा था, उसके बारे मे कुछ भी और लिखना सूरज को दिया दिखाने जैसा ही है। जो लोग पिछले ६० सालों से सत्ता के केन्द्र मे थे, और जिनकी सर परस्ती मे यह संस्थान चल रहा था, उसकी छानबीन क्यों नहीं करा सके। यूनिवर्सिटी प्रशासन और वहां पढ़ाने वाले अध्यापकों ने अगर इन देशद्रोही गतिविधियों का समय रहते विरोध किया होता तो आज हालात कुछ बेहतर हो सकते थे लेकिन ऐसा नहीं किया गया। जानबूझकर पिछली सरकारों ने ऐसे लोगों की भरती की थी, जो चुपचाप रहकर देशद्रोह की इस खेती की सिंचाई करते रहे और समय समय पर हमारे नेता सेकुलरिज्म की आड मे उस देशद्रोह की फसल को काट काट कर सत्ता का सुख भोगते रहें।
सीबीआई ने २०१३ की अपनी चार्जशीट में इशरत को बेगुनाह मानते हुए उसे मुंबई के कॉलेज की छात्रा माना, तो आइबी ने सवाल उठाया कि मुंबई की कॉलेज छात्रा हथियारों के साथ अहमदाबाद क्यों पहुंची? तब की यूपीए सरकार भी इस मामले पर एकमत नहीं थी। तत्कालीन गृह मंत्री पी चिंदबरम ने इशरत मामले को फर्जी मुठभेड़ से नहीं जोड़ा और आगे जांच की बात कही, लेकिन कांग्रेस के ही कुछ बयानवीर नेताओं को उनकी बात पर यकीन नहीं था। ऐसे में हेडली के ताजा खुलासे से कांग्रेस निश्चित ही पसोपेश में है। हालांकि, देश की हालिया दशकों की राजनीति पर गौर करें, तो इशरत जहां प्रकरण कोई पहला मामला नहीं है, जब कांग्रेस सहित कुछ दलों के वरिष्ठ नेताओं ने ठोस सबूतों के बिना गैरजिम्मेदाराना बयानबाजी की। वह चाहे कंधार में आतंकियों को छोड़े जाने का मामला हो या बाटला हाउस प्रकरण, वह चाहे कोर्ट के आदेश पर अफजल गुरु को फांसी देने का मामला हो या फिर ओसामा बिन लादेन से जुड़े बयान। हाल के दशकों में ऐसे अनेक मौके आये हैं, जब कुछ वरिष्ठ राजनेता अपने राजनीतिक हितों को सर्वाेपरि मान कर, सिर्फ वोट बैैंक को तुष्ट करने के मकसद से आधारहीन बयानबाजी करते दिखे हैं। ऐसी तुच्छ राजनीतिक बयानबाजियों और आरोप-प्रत्यारोपों के कारण आतंकवाद जैसे अत्यंत गंभीर मसले पर भी देश कई बार दो हिस्सों में बंटा दिखता है। ऐसी स्थिति राष्ट्रीय एकता, अखंडता और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए निश्चित रूप से खतरनाक है। इससे सामाजिक सौहार्द और अमन-चैन के वातावरण पर खतरा पैदा होता है, तो हिंसक और उग्रवादी गतिविधियों को पनपने का मौका मिलता है। वोट बैंक के इर्द-गिर्द घूमती ऐसी राजनीति ने देश में कई गंभीर समस्याओं को बढ़ाया है, तो पड़ोसी मुल्क अपनी नापाक करतूतों के लिए ऐसे माहौल का फायदा उठाने की फिराक में रहता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैैं)

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